ग्रामीण अधिवास की आकारिकी का अर्थ तथा परिभाषा:
"आकारिकी जनसंख्या, आर्थिक क्रिया तथा सांस्कृतिक भू दृश्यों से संबंधित होती है जिसमे निवास्य आदत व निवासी की शास्त्रीय भौगोलिक विशेषता वैसी ही होती है।"
"ग्रामीण अधिवास की आकारिकी से तात्पर्य उसके शारीर्य से है जो भौतिक तथा सांस्कृतिक कारकों से प्रभावित होती है। यह स्वयं अधिवास के भौतिक स्वरूप व संरचना से स्पष्ट होती है।"
ग्राम्य आकारिकी को प्रभावित करने वाले कारक:
1. धार्मिक अनुष्ठानिक मान्यता-
- ग्रामीण अधिवास के सामाजिक स्थानिक संरचना पर धार्मिक अनुष्ठानिक मान्यताओं का प्रभाव होता है।
- गांवों में ऊंची जाति के लोगों और नीची जाति के लोगों के अधिवास में पर्याप्त दूरी पाई जाती है।
- यह दूरी धर्मनिरपेक्ष समाज में यह दूरियां मिट जाती है।
- भारतीय गांवों में सामाजिक समिष्ठ को धारणा के कारण विविध जातियों के लोग एक साथ पर जाते है।
- ये भारतीय समाज के निर्माण में अग्रिम भूमिका निभाते है।
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(B- ब्राम्हण, R- राजपूत, S- सेवा कार्य, U- अनु. जाति, V- वैश्य, N- नाई, J- जाट) |
2. धर्मनिरपेक्ष प्रधान मान्यता-
- भारतीय समाज में धर्मनिरपेक्ष अवधारणा के कारण गांव की आकारिकी में काफी परिवर्तन आया है।
- समाजोन्मुखी धर्मनिरपेक्ष व्यवहार के कारण भारतीय अधिवासों में उच्च और निम्न वर्ग के गृहों में दूरियां कम हो गई है।
- आजादी के बाद भारत में निम्न जातियों का व्यवसायिक ढांचा ऐसा बन गया है ऊंची जाति का काम निम्न जातियों के सानिध्य के बिना नहीं चल सकता है।
- सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, स्तर पर ऊंची जातियों का संबंध निम्न जातियों से होता है।
- कृषि करने वाले किसानों को श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है।
- भूमिहीन को रोजगार की जरूरत होती है।
- गांव की भूमि का अधिकांश भाग किस जाति, वंश के अधीन है, इस बात का प्रभाव ग्राम्य आकारिकी पर स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
- भूमि का स्वामित्व रखने वाली जाति गांव की सामाजिक, आर्थिक दशा पर वृहद रूप से प्रभाव डालती है।
आवासीय पृथकत्व एवं सामाजिक संरचना-
आवासीय पृथकत्व एवं सामाजिक संरचना के संदर्भ के संबंध में चार स्तरीय स्थानिक ढांचे के अंतर्गत विश्लेषित किया जाता है-
1. ग्राम स्तर आवासीय प्रारूप-
- अधिवास और खेत प्रतिरूप को मिलाकर गांव की समस्त जनसंख्या गुच्छित होने पर इस आवास प्रारूप का विश्लेषण किया जा सकता है।
- इस प्रारूप में अनेक जाति मिली रहती है।
- ऐसे अधिवास में अधिवासी सामाजिक लाभ प्राप्त करते है।
- जैसे- मंदिर, विद्यालय, कुंआ, दुकान आदि तक लोगो की पहुंच आसान हो जाति है।
- इस प्रारूप में रोजगार के ज्यादा अवसर मिलते है।
2. जाति एवं जातिच्युत स्तर आवास प्रारूप-
- इस स्तर के आवास प्रारूप में दो या उससे अधिक संप्रदाय के लोगों की बस्तियां होती है।
3. वर्ण एवं जाति स्तरीय आवास प्रारूप-
- इस प्रकार के अधिवास प्रारूप में थोक, पट्टी, पाड़ा आदि समान जाति उपजाति तथा कभी-कभी समान व्यवसायिक समूहों द्वारा अधिवासित होते है।
- इस तरह के पट्टियों को चौधरान पट्टी, महलान पट्टी, बनिया पट्टी, मनिहारन पट्टी आदि नामों से जाना जाता है।
4. गोत्र या वंश परम्परा आवास प्रारूप-
- इस आवास प्रारूप में एक समान गोत्र के ग्रामवासी पाए जाते है।
- प्रत्येक स्थानिक जाति समूह में एक या इससे अधिक वंश परम्परा होती है।
- समान वंश परम्परा के लोगों में आवास सानिध्य होता है और वे सामूहिक रूप से कृषि करते है।
- यह संबंधता किसी संस्कार के समय अधिक स्पष्ट होती है।
ग्राम्य आकारिकी के विकास की प्रक्रिया-
- किसी भी ग्रामीण अधिवास की आकारिकी का वर्तमान स्वरूप उसके दीर्घकाल में घटित होने वाली घटना का ही परिणाम होता है।
- ग्राम्य आकारिकी में गांव का विकास निम्नलिखित अवस्थाओं में होता है-
1. भ्रूणकोषीय अवस्था-
- इस अवस्था में अधिवास को प्रारंभिक रूप देने वाले भूस्वामियों के अधिवास का जमाव शुरू होता है।
- प्रारंभ में भूमि का अधिग्रहण कर वहां आवास बनाते है, वह अधिवास की मूल उत्पत्ति का क्षेत्र होता है।
- वहां पहले एक गोत्र के लोग अधिवास बनाते है।
- इसे गोत्र अधिवास कहते है।
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भ्रूणकोषीय अवस्था |
2. प्रारूपोत्पत्ति अवस्था-
- इस अवस्था में गांव के मकानों का विस्तार होता है।
- गांव के ही अंदर सड़कों और बस्तियों का निर्माण हो जाता है।
- इन सड़कों के ही किनारे भवन बनने लगते है।
- गलियों की कोई निश्चित चौड़ाई नही होती है।
- इनके सहारे भूस्वामियों को सेवा देने वाले दूसरे गोत्रों की जातियां बसती है।
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प्रारूपोत्पत्ति अवस्था |
3. आकारिकी अवस्था-
- इस अवस्था में गांव की आकारिकी एक निश्चित रूप धारण कर लेता है।
- इसमें मुख्य केंद्र के बाहर भी ग्रामीण घर अस्तित्व में आ जाता है।
- इनमे अधिवास के प्रभावकारी वर्चस्व रखने वाले लोगों को सेवाएं देने वाले लोग बसते है।
- इनके आवास मुख्य अधिवास से कुछ दूरी पर होते है।
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आकारिकी अवस्था |